हमारी श्रद्धा ने ईश्वर को बनाया... भक्त हृदया माँ में है वो शक्ति की वह बनाती है ईश्वर के प्रतिमान और प्रवाहित भी कर देती है धारा में अपनी श्रद्धा को... अपने ईश्वर को... क्यूँ? क्यूंकि वह जानती है कि उसका रूप भीतर सुरक्षित है हृदयस्थली में... प्रतीकों के माध्यम से उसे गढ़कर शायद हम जैसे मूढों को कोई सन्देश देना चाहती है उसकी श्रद्धा...!!! प्रतीकों से ऊपर उठना... उसे आता है..., जिस दिन हम प्रतीकों से परे अपने भीतर उसे पायेंगे उस दिन निश्चय ही भगवान् जैसा कुछ सिरज पायेंगे...! उसे जानने के लिए उस जैसा होना पड़ता है... और उस जैसा होना आसां कहाँ!
अनुपमा जी आपकी प्रतिक्रया प्रेरणा देती है इस विषय पर और लिखने की। प्रकृति के अतिरिक्त अन्य कोई ईश्वर नहीं है तथा मानवता के अतिरिक्त अन्य कोई धर्म नहीं। दुर्भाग्य से आज हम, सम्प्रदाय को ही धर्म समझने लगे हैं।
हमारी श्रद्धा ने ईश्वर को बनाया... भक्त हृदया माँ में है वो शक्ति की वह बनाती है ईश्वर के प्रतिमान और प्रवाहित भी कर देती है धारा में अपनी श्रद्धा को... अपने ईश्वर को... क्यूँ? क्यूंकि वह जानती है कि उसका रूप भीतर सुरक्षित है हृदयस्थली में... प्रतीकों के माध्यम से उसे गढ़कर शायद हम जैसे मूढों को कोई सन्देश देना चाहती है उसकी श्रद्धा...!!!
ReplyDeleteप्रतीकों से ऊपर उठना... उसे आता है..., जिस दिन हम प्रतीकों से परे अपने भीतर उसे पायेंगे उस दिन निश्चय ही भगवान् जैसा कुछ सिरज पायेंगे...! उसे जानने के लिए उस जैसा होना पड़ता है... और उस जैसा होना आसां कहाँ!
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ReplyDeleteशब्बीर जी नमस्कार,
ReplyDeleteमेरे blog पर आने का आभार।
आपकी website भी बहुत पसंद आई,
बहुत-बहुत बधाई।।
अनुपमा जी आपकी प्रतिक्रया प्रेरणा देती है इस विषय पर और लिखने
ReplyDeleteकी। प्रकृति के अतिरिक्त अन्य कोई ईश्वर नहीं है तथा मानवता के
अतिरिक्त अन्य कोई धर्म नहीं। दुर्भाग्य से आज हम, सम्प्रदाय को ही
धर्म समझने लगे हैं।